मनहरण मुस्कान - श्री माँगीलाल बैरागी

शक्ति-भक्ति की इस देव-दुर्लभ नगरी चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर बैरागी कुल श्रेश्ठ स्व. श्रीलाल दास जी के पुत्र स्व. श्रीईश्वरदास जी बैरागी व जानी बाई की गृहस्थ फुलवारी में दिनांक 30.06.1960 को हर पल हँसी बाँटने वाला अमर मुस्कानों का मसीहा श्री माँगीलाल बैरागी नामक एक ऐसा फूल खिला जिसने अपने सर्वोेपकार के दुर्लभ मानवीय गुणों से ना केवल जन्म भूमि को वरन् अपनी कर्मभूमि रावतभाटा के जर्रे-जर्रे को सच्चे भाईचारे और मेहनत की खुशबुओं से सरोबार कर दिया।

  स्व. श्री रमेशदास स्व. श्रीमती भागवंती, श्रीमती हेमा के अग्रज एवं श्रीमती कमला के अनुज स्व. श्री मांगीलाल ने दुर्ग स्थित बाड़ी मंदिर श्री चारभुजा नाथ के महंत 108 स्व. श्री लालदास जी के चरण-कमलों का शिश्यत्व ग्रहण करते हुए बाल्यकाल में ही अध्यात्म जगत के कुछ अनुपम व्यावहारिक अध्यायों का अध्ययन प्रारंभ हो चुका था। गुरूदेव के करकमलों का प्रसाद एवं मुखारविन्द से स्नेहिल, सारगर्भित एवं भक्ति युक्त वाणी ने ऐसे ही कुछ सफलता के मूल मंत्र बताए जिनके अदृश्य प्रभावों से आप इतने अध्ययनशील रहे कि जून 1982 को (हेवी वाटर) रावट भाटा में फायर मेन के पद पर आपने राजकीय नियुक्ति पाई। वक्त का कारवां आगे बढ़ता ही रहा। विद्यार्थी जीवन में ही दिनांक 24.05.1978 को चित्तौड़गढ़ निवासी- स्व. श्री किशन दास जी बैरागी की सुपुत्री कौशल्या के संग पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ। तदुपरांत यह नवल-युगल दाम्पत्यभाव चम्बल की लहरों का हमझोली बन गया।

हेवीवाटर प्लांट कर्मचारियों के राजकीय आवास में माता-पिता के अन्तर्मन केा स्वर्णिम राश्मियों से अनन्त प्रकाशवान करता हुआ दिनांक- 12.4.1980 को पुत्र प्रकाश का जन्म हुआ। दिनांक 23.12.1983 को अन्नू व दिनांक 4.4.1986 को मन्नू की सुमधुर बाल्य किलकारियों से नन्दवन सदृश्य गृहस्थाश्रम का यह पावन उपवन कोयल पपीहे जैसे कलरव से सतत गूंजायमान होता हुआ इन्द्रधनुश की भांति बहुरंगी अनुभूतियों के साथ अर्जित पूर्णता के प्रकटीकरण हेतु व्याकुलता दर्शाने लगा।
श्री मांगीलाल एक अथक परिश्रमी, शांत-सरल स्वभाव से युक्त समस्त जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने वाले वात्सल्य भाव की जीवन्त प्रतिमा और अनुकरणीय हास्य प्रवृत्ति का यह अनूठा कर्मयोगी ताजिन्दगी किसी की तारीफ का तलबगार नहीं रहा।

‘‘संत हृदय नवनीत समाना’’ की उक्ति का पर्याय, जीवन पर्यन्त दूसरों की हर संभव मदद करते हुए अपने अगले जन्मों के कंटकाकीर्ण मार्गो को निश्कंटक बनाते रहे।

इस शट्रस भोजन-प्रेमी को जन्म से ही एक चिर स्मरणीय शिक्षक सा भावुक हृदय भी मिला। आपने आजीवन कन्या-शिक्षा के भरपूर समर्थक एवं उल्लेखनीय दानवीर के रूप में खूब प्रसिद्धि पाई। कई कन्याओं को पढ़ाने-लिखाने के सतत् प्रयासों की व्यस्तता में पता ही नहीं चल पाया कि स्वयं की सीता-गीता जैसी दोनों बालिकाएं विवाह योग्य हो गई। आप योग्यवरों को दूढ़ने में लग गए। अच्छे मन से किए गए प्रयास शीघ्र ही अच्छे परिणाम लेकर आते हैं।

दिनांक 12.5.2003 को श्रीमान् विभास वैश्णव के साथ अन्नू (अनुराधा), दिनांक 10.5.2006 को श्रीमान् हेमन्त वैश्णव उर्फ ‘संजू’ के साथ मन्नू (मीनाक्षी) और चार दिन पूर्व दिनांक 6.5.2006 को गायत्री के संग भाई प्रकाश के फेरे हुए।

गंभीरी नदी के किनारे बिचलागेला हनुमान जी के सेवक स्व0 श्रीमान् किशनदास जी, पुत्र श्री सत्यनारायण जी, पुत्र श्री कालू (सुभाश) और सोनू (सुनील) के यहां आपका ससुराल होने से वहां समय-समय पर पधार कर आप अनन्त-आत्मीय भाव से कई दिनों तक रहते थे। अपनी वाणी और मधुर मुस्कान से आपने सभी का ऐसा दिल जीत लिया था कि हर आँख हर रोज आपकी प्रतीक्षा करती रहती थी। कई दिनोें तक रहने के बाद भी मनवा तृप्त नहीं होता था।

गत रक्षाबंधन दिनांक 18.8.2016 की संध्याकालीन बेला में समस्त परिजनों के समेवित स्वरो में सासूजी (जीजी), अद्र्धांगिनी कौशल्या, पुत्रियां अन्नू-मन्नू तीनों दोहिते-दोहिती-अनुभास, राघव, जयश्री शालाजी सत्यनारायण जी के पुत्र कालू-सुभाश आदि उपस्थित मेहमानो की अलग-अलग एवं सम्मिश्रित आवाजें शाम की सब्जी मण्डियों की तरह भरपूर कोलाहल से युक्त गृहस्थाश्रम का यह वाणी सिद्ध तपोवन विभिन्न ध्वनि-तरंगों से पूर्ण गूंजायमान हो रहा था, केवल एक अमृत मामा ही स्वभाववश मूर्ति की भांति सभी को सुन रहे थे।

बहुरंगी समय ने रंग बदला और पलंग पर बैठे-बैठे ही आपकी वाणी तनिक असंतुलित हुई फिर उठ कर चलने के प्रयास में जैसे ही पांव लड़खड़ाने लगे कि सभी ने तुरंत उठकर इस प्रकार संभाल लिया कि आप गिरते-गिरते बच गए। कुछ ही मिनटों में आपको सांवलिया चिकित्सालय में भर्ती करा-ईलाज शुरू कर दिया गया। प्राथमिक चिकित्सा उपरांत आपको चित्तौड़गढ़ से कोटा शिफ्ट किया तत्पश्चात् जयपुर।

नाना प्रकार की दवाएं- औशधियां सेवा- सुश्रुशाओं का अनपेक्षित दुःखद परिणाम यही निकला कि दिनांक 13.09.2016 (जलजूलनी एकादशी) को रात्रि 11.30 बजे डाॅक्टर ने अटेण्डेण्ट के रूप में उपस्थित पुत्र को तुरन्त बुला कर कहा हे प्रकाश! वेरी साॅरी, हमारा हर प्रयास असफल हो गया, लगता है अब घोर अंधेरा होने वाला है। अभी डाॅक्टर का वाक्य पूरा हुआ ही नहीं था कि इधर पल-पल मुस्कुरा कर बोलने वाली यह मनहरण हास्य प्रतिमा अगले ही पल पाशाण सी खामोश हो गई और उधर आरजुओं के साथ जिद्दी बालक की तरह उमड़ता हुआ आया आँसुओं का सैलाब मगर फिर भी नतीजा केवल शून्य रहा। हमारी गणनाएं कोरी कल्पनाए सब शून्य में विलीन हो गई। संसार का यह भी एक कटु सत्य है, जिसे हजारो बहती आँखों ने आज फिर बड़े करीब से देखा।

केवल पिंजरा रह गया यहीं पर यार ।
प्यारा पंछी गया चान्द सितारों पार ।।
‘वाणी’ बेषक, सबको जाना एक दिन ।
मगर काष आप ठीक हो जाते एक बार ।।
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जानी ईष्वरदासजी, मात पिता हा आप ।
भाई रमेषदासजी, साथ निभाया आप ।।
साथ निभाया आप, हार्या काम अणगणती ।
हेमा कमला बेन, लाड़ करे भागवन्ती ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, करे बात बड़ा ज्ञानी ।
लाखा-लाखा एक, ईश्वर दास अन जानी ।।
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हाल-चाल बेहाल हा, दवा देवता रोज ।
पड्यो नहीं आराम तो, मनड़ा रोता रोज ।।
मनड़ा रोता रोज, किस्मत की लेणा बांच ।
आय आखरी पाठ, कोई नी बोले हाँच ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, बाल गोपाल बेहाल ।
निकळ्या कतरा साल, हूदर्या कोनी हाल ।।
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आँसू सबकी आँख से, बहते हैं दिन-रात ।
खुले जुबान जब-जब भी, करे आपकी बात ।।
करे आपकी बात, ऐसा कैसे हो गया ।
जिन्दा दिल इंसान, कहो कहां पर खोगया ।।
कह वांणी कविराज, ये षाला ससुर, सासू ।
प्यारे बांधव मीत, सभी बहा रहे आँसू ।।
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लेखक - कवि अमृत ‘वाणी’
अमृतलाल चंगेरिया  (कुमावत)
+91 94131 80558