पत्थर के पुजारी ( Pathar Ke Pujari ) : Chhagan Lal Ji Kumawat

Let. Sh. Chhagan Lal Ji Nahar
( Kumawat)  Chittorgarh
पुण्य स्मरण
पत्थर के पुजारी
छगन लाल जी नाहर कुमावत


   अनन्त शौर्यवान, अक्षुण्ण ऊर्जावान समर शिरोमणि सांगा की तलवार की टंकार और भक्तिमयी मीरां के घुंघरुओं के समेकित स्वरों से सतत अनुगंूजित अजर-अमर एवं अक्षय यौवना वीर प्रसूता चित्तौड़ नगरी के निवासी कुमावत क्षत्रिय समाज के समस्त सुवासित सतरंगी पुष्पों की बहुरंगी वाटिका में एक फूल को स्व. चम्पालाल नाहर के नाम से पुकारा जाता था। उनका विवाह बिनोता निवासी स्व. श्री गंगाराम जी पालरिया की सुपुत्री नाथीबाई के साथ सम्पन्न हुआ। ‘एकः चन्द्र तमो हन्ति’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए नाथीबाई अपनी सम्पूर्ण ममता इकलौते पुत्र स्व. श्री छगनलाल के नैसर्गिक बचपन पर न्यौछावर कर भवसागर पार कर गई।
            लौकिक रंगमंच पर नाचने को विवश हम सांसारिक कठपुतलियां विधाता की अंगुलियों से जीवनपर्यन्त बंधे अपने अदृश्य धागों को कहां देख पाती हंै। जीवन सरगम के फिर सुर बदले।  समीपस्थ घटियावली निवासी स्व. हीराजी सुंवारिया की बेटी स्व. भूरी ने स्व. चम्पालाल जी की जीवन यात्रा को उसी दिशा में एक नई गति प्रदान कर स्व. चम्पालाल जी की द्वितीय जीवनसंगिनी बनी। अब इस नाहर कुल में कुल - श्री घीसूलाल जी, श्रीमती कैलाशीबाई सहित स्व. छगनलाल जी तीन भाई बहिन हो गए।
            वक्त का कारवां आगे बढ़ता है और समय का सारथी मुखमण्डल पर शोभायमान नवांकुरित की भांति मूंछों की श्यामल रेखाओं को दुर्ग की प्राचीरों से आती हुई शहनाइयों की मनभावन धुन सुनाकर पीपली चैक स्थित स्व. रोडूलाल जी कुमावत की गृहस्थ फुलवारी की प्रथम कलिका स्व. चुन्नीबाई के संग पाणिग्रहण संस्कार हेतु एक आत्मीय आमंत्रण दिया, जिसके अन्तिम चरण में श्री केसरीमल, श्रीमती प्यारीबाई, श्री घनश्याम, श्रीमती घटू, श्रीमती रामकन्या एवं समस्त परिजनों ने विदाई गीत के साथ अपने सजल नयनों को पौंछते हुए इस वृहद सामाजिक उत्तरदायित्व को पूर्ण किया।
            शहर में सर्वचर्चित तत्कालीन शिक्षक चन्दनपुरा निवासी स्व. गणेशलाल जी ब्राह्मण के यहां प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण कर सम्वत् 2005 से ही अपने पारम्परिक शिल्प कार्य को जीविकोपार्जन का मुख्य आधार बनाते हुए जीवन संगिनी की हथेलियों की गीली महेन्दी से मौन स्वीकृति ले गज, हथौड़ा, छैनी, टांकी, करणी, सूत-सावेल आदि औजारों का थैला कंधे पर धर शीघ्रागमन का वादा करते हुए आपने न जाने किस अबूझ मुहूर्त में प्रस्थान किया कि लगभग 40 वर्षों तलक परदेस में विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के निर्माण-कार्यों में लगे रहे। नारायणगढ़ के पास स्थित गांव बूढ़ा जहां आपने 2 जुग यानी की 24 वर्षों तक अनवरत भवन-निर्माण कार्य किया।
            सम्वत् 2012-13 में स्व. श्री राधाकिशन जी बारीवाल के सान्निध्य में चित्तौड़गढ़ शहर से कपासन रोड़ पर स्थित झांतलामाता मन्दिर-निर्माण में और भीलवाड़ा जिले के अरहरे गांव के मन्दिर में भी आपको कार्य करने का सौभाग्य मिला।
            अहमदाबाद स्थित आनन्दजी कल्याणजी की मुख्य पेड़ी द्वारा संचालित निर्माण-कार्य स्थल राजसमंद जिले के आमेट एवं नीमच जिले के चीताखेड़ा और मल्हारगढ़ गांव में आपको स्व. रोडूलाल जी, स्व. बंशी जी और स्व. भेरूलाल जी मोरवाल, भीण्डर वाले का भरपूर सान्निध्य मिला। ससुर जी एवं मिस्त्री जी स्व. रोडूलाल जी के साथ आपने दुर्ग पर भी कार्य किया। आप विशेषतः मन्दिरों के गोल गुम्बज बनाने के निष्णात शिल्पकार थे।

            सीखने-सिखाने की इस शाश्वत पावन प्रक्रिया में श्री जगनाथ हुंवारिया (घटियावली), श्री जगदीश जी, श्री नोला जी गायरी (दुर्ग), नानालाल जी (गोपालनगर) आदि अनेक आपके प्रिय शिष्य रहे। चित्तौड़गढ़ शहर के गांधीनगर में आपने लगभग 20 से अधिक आवासीय भवनों का निर्माण-कार्य एवं देखरेख करते हुए उन्हें पूर्ण किया।
            शहर फतहनगर के उदयपुर रोड़ पर स्थित लोकप्रिय देवता धूणीवाले बावजी की विशेष देवानुकम्पा से सात लड़कियों के बाद पुत्र रूप में जन्मी आठवीं सन्तान को श्री किशनलाल के नाम से पुकारा जाता, जिनका विवाह स्व. श्री बंशीलाल जी गेंदर की तीसरी पुत्री श्रीमती अणछीबाई के साथ सम्पन्न हुआ। काना, बन्टी और शीतल आपके यशस्वी पुत्र-पुत्री हैं। बड़ी बहिन मोहनीबाई, स्व. श्री गिरधारीलाल जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री बालचन्द जी गेंदर को ब्याही, साथ ही छोटी बहिन कंचनदेवी को स्व. रतनलाल जी चंगेरिया (छोटीसादड़ी वाले) के द्वितीय पुत्र श्री अमृतलाल चंगेरिया को ब्याही। ओमप्रकाश, चन्द्रप्रकाश, दिलीप, अनिता (गेंदर) एवं यशोदा, नीलम, चन्द्रशेखर और चेतन (चंगेरिया) स्व. श्री छगनलाल जी के दोहिते-दोहिती हैं। रोली, प्रियांशी, श्रीया, दिव्यांशी, मनस्वी परी, वंशराज आपके पड़ दोहिते-दोहिती हंै। इनके मधुर स्वरों से सभी के अन्तर्मन सदैव आनन्दित रहते है। प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त हो देव दर्शनार्थ फूल-पत्ती लेने बाग-बागीचे जाना और चारभुजा मंदिर में प्रसाद एवं तुलसी पत्र चढ़ाना आपकी दिनचर्या के अभिन्न पहलू रहे। 
            50 वर्षों तक प्रतिदिन पसीने की बून्दों से मौन जलाभिषेक करने वाले पत्थर के इस पावन पुजारी से एक दिन अचानक ही पत्थर के सनम रूठ गए। आपकी ही छैनी-हथौड़ी से विषबाण की भाँति उछली एक टाप (पत्थर का एक छोटा सा टुकड़ा) आतंकवादी की तरह चुभ गई दायी आँख में। दूसरी आँख से पत्थर, मकान और मकानमालिक की जगह अब केवल आँखों के डाॅक्टर कम्पाउण्डर ही दिखाई देने लगें। लम्बे समय से नाना प्रकार के उपचार अभी चल ही रहे थे कि कैंसर के मर्ज ने इनके बचे-खुचे लघूत्तम सुख सदन का मुख्य द्वार खटखटा दिया। सालाजी श्री केसरीमल जी ने सहोदर से भी बढ़कर आपकी सेवा-सुश्रूषा करते हुए चार माह से अधिक समय तक अहमदाबाद रहते हुए सन 2001 मंे कैंसर रुपी दानव का पूर्णतः संहार कर लंका विजयोपरान्त राम-लक्ष्मण की भाँति प्रसन्न मुद्रा में चित्तौड़गढ लौटे।
            इसी वर्ष दिनांक 1 अप्रेल 2013 को आपकी जीवन संगिनी स्व.चुन्नी बाई इस असार संसार को छोड़कर अनंत तारापथ की अनुगामिनी हो गई। उस मानसिक आघात से आप अभी उबर ही नहीं पाए थे कि दिनांक 23.11.2013 को निजी आवास के बरामदे में उठते वक्त पुनः गिर जाने से कुल्हे की हड्डी टूट गई। इकलोते पुत्र श्री किशन लाल ने तब से ही अपने पूज्य पिताजी की अवर्णनीय सेवा करते हुए पितृ-भक्ति की एक मिसाल कायम की। सतत् प्रगतिशील 85 वर्षीय एक पहियें पर चलता हुआ वह जीवनरथ अब लड़खड़ाने लगा। तब से अनवरत जिजीविषा की उत्कंठा और जीवनज्योति स्वतः मंद से मंदतर होती रही। दिनांक 10.12.2013 की दोपहरी भी अभी दूर थी कि आपके प्राणपखेरू हम सब को छोड़कर महाप्रयाण कर गए।

Punya Smaran
Let. Sh. Chhagan Lal Ji Nahar (Kumawat)
Punya Smaran
Let. Sh. Chhagan Lal Ji Nahar (Kumawat)

Kavi Amrit Wani (Kumawat)

Sh. Radheshyam Ji Nahar ( Kumawat )
Sh. Kishan Lala Ji Nahar ( Kumawat )


एक दुर्ग-नन्दिनी का पुण्य स्मरण (Ek Durg Nandni Ka Punya Smaran) Shri Mati Chunni Bai Nahar (Kumawat)

पुण्य स्मरण
एक दुर्ग-नन्दिनी का
चुन्नीबाई नाहर कुमावत

                                                          

 चित्तौड़गढ़ शहर की पूर्व दिशा में विश्व विख्यात ऐतिहासिक दुर्ग स्थित है, जहां पर माँ कालिका मन्दिर की घंटियां कई शदियों से अहर्निश बिन रूण्ड-मुण्ड वाले समरांगण में सुशोभित असंख्य रणबांकुरों की रह-रहकर गौरव गाथाएं गाया करती है। वहीं भारतीय कला का उत्कृश्ट उदाहरण विजय-स्तम्भ भी है। यह लाखों वीरों की आन-बान-शान युक्त प्रयाग सदृश्य त्रिवेणी ज्वार ही नहीं मानो समस्त क्शत्रीय कुल का समरांगण में अस्त्र-शस्त्र सुसज्जित गर्वोन्न्त भाल है। किसी प्राकृतिक विपदा से जब विजय-स्तम्भ को आंशिक क्शति पहुंची।
                   जिसके निवारणार्थ पुरातत्व विभाग की ओर से गठित राजमिस्त्रियों की विद्व-मण्डली में, जल-कुण्ड कुमारिया के पास ही स्थित कुमावत कुलश्रेश्ठ स्व. कंवरी बाई के कंत स्व. रोडूबा खन्नारिया का नाम न जाने कहंा से उछलकर तात्कालिन वास्तुज्ञाता एवं शिल्प शास्त्रियों के बीच दुर्लभ हीरे की भांति चमक उठा।  मरम्मत-कार्य की गति ने अद्भूत प्रगति का पाठ पढ़ाया। शीघ्र ही कार्य सम्पन्न हुआ। पत्थरों के उस जोड़ की बेजोड़ शिल्प कला की सुखद चर्चाएं  आज भी  दसों  दिशाओं मंे  चंचल सुवासित  मलयानिल की भांति बहुचर्चित हैं। राजमिस्त्री के पद पर सेवारत रहते हुए शिल्पकला के वंशानुगत, ज्ञानानुभवों के साथ-साथ कृशि-कार्य से जीविकोपार्जन करने वाले गृहस्थी स्व. रोडूलालजी कुमावत की गृहस्थ वाटिका में  विभिन्न प्रकार के कुल छः पुश्प खिले। जिसमें प्रथम कलिका को चुन्नीबाई के नाम से पुकारा जाने लगा।
Smt. Chunni Bai Nahar 
Kumawat

                  कंटकाकीर्ण मार्ग एवं पथरीले बाड़ों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक डालपक सीताफलों की जी-जान से रखवाली करती हुई बन्दरों को भगाती रही। भगाते-भगाते ही शाखामृग तो पूरे भाग नहीं पाए किन्तु आपका बचपन भाग गया। नैसर्गिंक तरूणाई ने अंगडाई ली। चिन्तन बदला चितवन बदली बढ़ गई मन की विरानी। तात्कालिन सामाजिक दूरदर्शियों एवं परिजनों ने मिलकर अब इस परिन्दें को दूर उड़ाने की ठान ली। शहर चित्तौड़गढ़ निवासी स्व.नन्दरामजी नाहर के सुपौत्र एवं स्व. चम्पालाल जी नाहर के पुत्र श्री छगनलाल जी के संग चुन्नीबाई के हाथ पीले होने सुनिश्चित हुए। पावन परिणयोत्सव में शहनाईयों की गंूज एवं श्री केसरीमल, प्यारीबाई, श्री घनश्याम, गटूबाई, एवं समस्त आत्मियजनों के वैवाहिक गीतों ने सुप्रसिद्ध शिल्पकार की ज्येश्ठ कन्या को अन्तर्निहित सतरंगी अरमानों के साथ जन्म-जन्म के जीवनसाथी के घर की स्वागतातुर चिर प्रतिक्शारत देहली तक पहुंचाकर सजल नैनों को पौंछते हुए एक बड़ा सामाजिक उत्तरदायित्व पूर्ण किया।

कुछ ही दिनों बाद हथेलियों की गीली मेहन्दी से मौन स्वीकृति लेकर गज, हथौड़ा, छेनी, टांकी करणी, सावेल इत्यादि पारम्परिक औजारों को कंधे पर धर कर कोमलांगिनी की अश्रुधाराओं को पेट की भूख- प्यास के हाथों से तैरते हुए शीघ्रागमन का वादा करते हुए देश छोड़ मजदूरी करने पीव परदेश निकल गए। शक्ति-भक्ति की देवनगरी चित्तौड़गढ़ के सदर बाजार और जूना बाजार के बीच मात्र पांच-पांच,छः-छः फीट चैड़ी सर्पाकार गलियां, पुराना पोस्ट आॅफिस, खाकलदेवजी, चारभुजानाथ मन्दिर से कुछ ही दूरी पर स्थिति देवनारायण देवरे के ठीक सामने लगभग ढ़ाई फीट चैडे़ द्वार वाले मकान में ऐसे मुहूर्त में प्रविश्ठ हुए जहां स्व. चुन्नीबाई ने अपने समग्र जीवन के 80 बसंत देखे, मगर उनकी सांस, श्वांस की असाध्य बीमारी की हमसफर बनकर अन्तिम सांस से छली गई।

अल्पकालिक सौभाग्य ने करवट बदली स्व.चम्पालाल की जीवनसंगिनी बिनोता निवासी स्व.गंगाराम जी पालडि़या की सुपुत्री नाथीबाई नवदम्पत्ति (छगनलाल-चुन्नीबाई) को दुर्गम पथरीले पथ पर एवं अपने प्राणाधार को अचानक मझधार में ही छोड़ कर पवनवेग से भवसागर पार कर गई। तदुपरान्त एक कुदरती खामोश ईशारा हुआ। गुजरते हुए मौत के तूफां में खुशबू महकी एक रूहानी तब्दीली का दौर चला चित्तौड़गढ़ शहर से पूर्व-दक्शिणी दिशा की ओर 16 किमी दूर केलझर महादेव की समीपस्थ पावनधरा घटियावली निवासी स्व. हीराजी सुंवारिया की बेटी भूरी, जख्मी मुसाफिर स्व. चम्पालालजी के टूटे पांव की ऐसी काबिल बैसाखी बनी कि कालान्तर में श्री घीसूलालजी और श्रीमती कैलाशीबाई (पुत्र-पुत्री) उनकी गोदी में आए और देवप्रदत्त अपने जीवन-पथ पर अग्रसर हुए ।

‘‘कार्य ही पूजा है’’ सिद्धान्त की अनूठी आराधिका स्व. चुन्नीबाई प्रारम्भ से ही बहुत परिश्रमी रही। सहेलियों संग कभी पुडि़यां बंटने जाना, कभी गोंद साफ करना तो कभी कृशि-कार्य हेतु खेतों पर जाना, ऐसी ही समयानुकूल विभिन्न प्रकार की दानकी-मजदूरी करती हुई एक अथक कर्मयोगिनी की भांति पसीने की क्शारीय स्याही से जिन्दगी का सफरनामा लिखते-लिखते ही बाल सफेद हो गए। धन-बल से ही सुनहरे भविश्य की सुखद परिकल्पनाएं साकार करने वाली, केवल अटूट मेहनत में ही अटूट विश्वास रखने वाली घाणी के बैल की भांति वृताकार गति में ही अनवरत गतिशील रहती हुई आत्म-संतुश्टी की अथक आराधिका चंद प्रतिकूल घटनाओं को क्रमशः झेलती हुई असामयिक ही ‘‘ मन के हारे हार ’’  की उक्ति को चरितार्थ कर बैठी।


सात लड़कियों के बाद गांव फतहनगर में उदयपुर रोड़ पर स्थित धूणीवाले बावजी की देवानुकम्पा से आठवीं व नवमी संतानें पुत्र रूप में जन्मी। दीर्घायु आठवी संतान को किशनलाल के नाम से जाना जाता है। जिनका विवाह चित्तौड़गढ़ निवासी स्व. बंशीलालजी गेंदर की चार लाड़ली बेटियों (पार्वती, प्रेम, अणछी, शान्ति) में तीसरी बेटी अणछीबाई के संग सम्पन्न हुआ। चुन्नीबाई की सात लड़कियों में से पाँच लड़कियां अल्पायु में ही मां के ममतामयी आंचल को छोड़ समय पूर्व ही अनन्त तारापथ की अनुगामिनियां हो गई।


दो लड़कियों में बड़ी लड़की मोहनीबाई स्व. होलाबा गेंदर के सुपौत्र एवं स्व. गिरधारीलालजी के सुपुत्र श्रीबालचन्द जी को एवं छोटी लड़की कंचनदेवी को सादड़ी वाले स्व. घीसालालजी चंगेरिया के सुपौत्र एवं स्व. रतनलालजी के सुपुत्र श्री अमृतलालजी को ब्याई। मानव शरीर अनन्त व्याधियों का अनन्त भण्डार है। यहां कब किसके कौनसी बीमारी हो जाए कोई नहीं कह सकता। हम सभी विधाता के कोटि-कोटि कर-कमलों की मनगढ़ंत क्शण भंगूर कठपुतलियां हैं।


नीलाम्बर के उस पार छिपकर बैठा वो अचूक बाजीगर विगत लाखों वर्शो से जिसको जैसे नचाना चाहता है उसे उसकी लाख इन्कारियों के बावजूद भी उसी तरह नाचना पड़ता है जिस तरहां ईश्वर चाहता है। वह ऐसा हठीला हाकिम भी है जो अक्सर किसी की सिफारिशें नहीं सुनता।

स्व. चुन्नीबाई-कन्हैया, बंटी, खुशबू उर्फ सीता पौत्र-पौत्री, ओमप्रकाश, चन्द्रप्रकाश, दिलीप, अनिता, यशोदा, नीलम,चन्द्रशेखर, चेतन, दोहिते-दोहिती, रूद्राक्शी, प्रियांशी, दिव्यांशी, परी, वंशराज पड़दोहिता-पड़दोहिती का हर-भरा खुशबूदार महकता हुआ गुलशन छोड़कर अचानक चल बसी। दिवंगत आत्मा को स्वर्ग में स्थान मिले एवं शोक सन्तप्त परिवार को यह वज्राघात सहन करने की शक्ति मिले। इन्हीं प्रार्थनाओं के साथ चारभुजानाथ के चरण-कमलों में बारम्बार प्रणाम।

आज तक हाथ की रेखाओं में समय पूर्व किसी को कुछ नहीं दिखा है।
यूं देखते तो सभी है, कि देखे लिखने वाले ने क्या-क्या लिखा है।
'वाणी' यह मुमकिन नहीं, क्या हू-ब-हू पढ़ लेगा तू उसकी तहरीर को।
अरे नादान! तू तो क्या तेरे तमाम कुनबांे में इतनी कुब्बत कहां है।


Ek Durg-Nandni ka Punya Smaran


रचनाकार -
कवि अमृत ‘वाणी’
(अमृतलाल चंगेरिया कुमावत) 
राधे श्याम नाहर (कुमावत)




Kavi Amrit Wani (Kumawat)

Sh. Radheshyam Ji Nahar ( Kumawat )
Sh. Kishan Lala Ji Nahar ( Kumawat )

Shree jamna Lal Athwal : Abhinandan Patra

श्री जमना लाल अठवाल : अभिनंदन पत्र

सर्व पूज्य स्वतंत्रता सेनानियो की सतत् सवायित सुमन श्रंखला को समग्र संसार मे सर्वोच्च स्तरीय शोभायमान करने वालो मे मेवाड़ अंचल के समर भवानी रणचण्डी के अमर पूजारी, अवर्णनीय अनन्त रक्तिम आभायुक्त जन-जन के लाड़ले रूपाजी की कर्मस्थली एवं प्राणोत्सर्ग की पावन नगरी बेगू क्षेत्र के कृषक वर्ग के गौरव स्व. श्री देवीलाल जी अठवाल और श्रीमती प्यारीबाई की गृहस्थ वाटिका मे दिनांक 24-2-1954 को श्री जमनालाल अठवाल नामक एक ऐसा श्यमवणी पुष्प खिला जिसने एक सराहनीय कुल दीपक की भांति ही नही वरन् शिक्षा विभाग के चित्तौड़गढ़ जिले को दीपावली की तरहा रोशन करने बाबत् कई बरसो तलक, लम्बी कामयाबी मशक्कत मे एक लाजवाब मिसाल का किरदार निभाया।
स्नातक तक अध्ययन करने वाले श्री जमनालाल ने भाई प्रवीण कुमार और श्यामलाल,बहिन प्रेमदेवी, विमल, मीरा आर्य और कई सहपाीठयो  के साथ-साथ खेलेते-कुदते जन्म स्थान नन्दवाई से ही प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की। माध्यमिक शिक्षा रा.उ.मा.वि. बेगू से और स्नातक शिक्षा हिन्दी, भूगोल, राजनीती शास्त्र विषयो के साथ जिला मुख्यालय चित्तौड़गढ़ से सन् 1977 मे प्राप्त कर तदुपरान्त अर्थोपार्जन हेतु सरकारी दफ्तरो की ओर मुखातिब हुए। भाइयो और अनन्य बाल सखाओ के समेकित कोलाहल मिश्रित स्नेहिल स्चरो की अनुगूंजित प्रतिध्वनियो से सतत अनुप्रेरित किशोखय मे कर्म और भाग्य के युगल तरंगो से सुसज्जति यह प्रगति रथ, समय सारथी के पदचिन्हो का आदर्थ अनुकरण करता हुआ दिनांक 16-11-1978 को कनिष्ठ लिपिक के पद पर चयनोपरान्त प्रसन्न मुद्रा मे रा.मा.वि. अरनिया जोशी अर्थात् सफलता के प्रथम सोपान पर पहुचा। एक नौसीखिए के रूप मे अपनी सराहनीय सेवाएं देते हुए “जननी जन्म भुमिश्च स्वर्गादपि गरियसी के मूल मन्तव्य को आत्मसात् करते हुए 3 वर्षो मे ही बचपन की बारम्बार कई बाल-स्मृतियो के मौन आमन्त्रण पर स्थानान्तरण द्वारा आप जन्म स्थली नन्दवाई आए। सतरंगी मौसम के बदलते मिजाज की तरहां तबादलो और तरक्कियो से आपके कर्म-क्षेत्रो मे समय-समय पर तब्दीलियां होती रही।
दिनांक 9-2-1990 को वरिष्ठ लिपिक के पद पर पदोन्नत होकर रा.मा.वि. एकलिंगपुरा (चित्तौड़गढ़) गए। बस्सी और बिछोर मे एक जुग तक पदानुकूल चिरस्मरणीय सेवाओ सहित घाट-घाट का पानी पीते हुए रमता जोगी बहता पानी“ की उक्ति को आंशिक चरितार्थ करने हुए प्रगति पथ का यह अथक पथिक का दिनांक 10-2-2013 को ऐसे शुभ मुर्हूत मे रा.उ.मा.वि. सेती आगमन हुआ कि विद्यालय आपके सरकारी सफर का आखिरी मुकाम मुकर्रर रहा।
उच्च अधिकारियो के दिशा-निर्देशो की चाॅक पर जिम्मेदारियो की खुशबू से सुवासित कर्तव्य परायणता की सिद्ध माटी से सुनिर्मित कठोर मेहनत और पसीने के आँवां पर परिपक्व नैसर्गिक हास्य-शैली से परिर्पूएा यह अक्षय पावन घट शबनम सी आँखो सदृथ्श छलकता हुआ हीरे-मोती जैसे तोहिन कणो से युक्त आज एक प्राचीन मौन-साधना शिखर के स्वर्णिम कलश जैसा प्रतीत हो रहा है। सफरनामे मे इतिश्री लिख आखिरी पन्पे को पलटती हुई तनिक विश्राम हेतु कम्पायमान अंगुलियो की कलम अब कलमदान की ओर बढ़ रही है।
पुत्र योगेश सहित परिजनो के चिरप्रतीक्षारत सजल नयन, आँखे मे उमडते सावन-भादवो की घनघोर घटाअसे को बड़ी बेसब्री से संभालती हुई दहलीज पर खड़ी वृद्ध माँ ओर पुत्रियाँ आशा, निशा, रानी के अवस्द्व कण्ठो के सुरीले स्वागत-गीत, पौत्र-पौत्री दक्षराज उर्फ चिडि़याँ और कनिष्क के कंजकरो मे सुशोभित मौन विजय मालाण्ं, ढोल-नगाड़ो की हर्षवर्धक सांकेतिक ध्वनियाँ मुखारविन्द पर बहुरंगी गुलाल, करकमलो मे शोभायमान फलस्वरूप श्रीफल उक्त सभी धुप-छाया की भंाति सुख-दुःख सम्मिलित जीवन वन की समस्त संचित अनुभूतियाँ ही इस आंथिक शाब्दिक-अभिानन्दन को पूर्णता प्रदान करती हुई प्रतीत हो रही है।


सवा पैतीस वर्षो का सरकारी सफर पूर्ण कर सकल बंधनो से नैसर्गिक मुक्ति ले अस्ताचल की ओर बढ़ता हुआ क्षिप्रगामी ताम्रवर्णी तनिक क्लान्त सा यी अथक दिनकर सागर की लहरो का हमराज बनकर कारवां से दूर आज इस लवाजमे की तमाम नजरो से ओझल होने को आतुर लगता है। हीरक हार सी सुजज्जित तमस की श्यामल सेज पर तनिक विश्रामोपरान्त कल भौर की स्वर्णिम रश्मियाँ क्रमथः कर्म रेखाओ मे प्रारब्धानुसार परिवर्तन करती हुई नियमित स्वाध्याय, समाज सेवा, ईश्वरोपासना की ओर आनको सतत अग्रेषित करती रहेगी, विद्यालय परिवार की यही कोटि-कोटि शुभकामनाएँ है।



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श्री जमनालाल अठवाल

सर्व पूज्य स्वतंत्रता सेनानियो की सतत् सवायित सुमन श्रंखला को समग्र संसार मे सर्वोच्च स्तरीय शोभायमान करने वालो मे मेवाड़ अंचल के समर भवानी रणचण्डी के अमर पूजारी, अवर्णनीय अनन्त रक्तिम आभायुक्त जन-जन के लाड़ले रूपाजी की कर्मस्थली एवं प्राणोत्सर्ग की पावन नगरी बेगू क्षेत्र के कृषक वर्ग के गौरव स्व. श्री देवीलाल जी अठवाल और श्रीमती प्यारीबाई की गृहस्थ वाटिका मे दिनांक 24-2-1954 को श्री जमनालाल अठवाल नामक एक ऐसा श्यमवणी पुष्प खिला जिसने एक सराहनीय कुल दीपक की भांति ही नही वरन् शिक्षा विभाग के चित्तौड़गढ़ जिले को दीपावली की तरहा रोशन करने बाबत् कई बरसो तलक, लम्बी कामयाबी मशक्कत मे एक लाजवाब मिसाल का किरदार निभाया।
स्नातक तक अध्ययन करने वाले श्री जमनालाल ने भाई प्रवीण कुमार और श्यामलाल,बहिन प्रेमदेवी, विमल, मीरा आर्य और कई सहपाीठयो  के साथ-साथ खेलेते-कुदते जन्म स्थान नन्दवाई से ही प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की। माध्यमिक शिक्षा रा.उ.मा.वि. बेगू से और स्नातक शिक्षा हिन्दी, भूगोल, राजनीती शास्त्र विषयो के साथ जिला मुख्यालय चित्तौड़गढ़ से सन् 1977 मे प्राप्त कर तदुपरान्त अर्थोपार्जन हेतु सरकारी दफ्तरो की ओर मुखातिब हुए। भाइयो और अनन्य बाल सखाओ के समेकित कोलाहल मिश्रित स्नेहिल स्चरो की अनुगूंजित प्रतिध्वनियो से सतत अनुप्रेरित किशोखय मे कर्म और भाग्य के युगल तरंगो से सुसज्जति यह प्रगति रथ, समय सारथी के पदचिन्हो का आदर्थ अनुकरण करता हुआ दिनांक 16-11-1978 को कनिष्ठ लिपिक के पद पर चयनोपरान्त प्रसन्न मुद्रा मे रा.मा.वि. अरनिया जोशी अर्थात् सफलता के प्रथम सोपान पर पहुचा। एक नौसीखिए के रूप मे अपनी सराहनीय सेवाएं देते हुए “जननी जन्म भुमिश्च स्वर्गादपि गरियसी के मूल मन्तव्य को आत्मसात् करते हुए 3 वर्षो मे ही बचपन की बारम्बार कई बाल-स्मृतियो के मौन आमन्त्रण पर स्थानान्तरण द्वारा आप जन्म स्थली नन्दवाई आए। सतरंगी मौसम के बदलते मिजाज की तरहां तबादलो और तरक्कियो से आपके कर्म-क्षेत्रो मे समय-समय पर तब्दीलियां होती रही।
दिनांक 9-2-1990 को वरिष्ठ लिपिक के पद पर पदोन्नत होकर रा.मा.वि. एकलिंगपुरा (चित्तौड़गढ़) गए। बस्सी और बिछोर मे एक जुग तक पदानुकूल चिरस्मरणीय सेवाओ सहित घाट-घाट का पानी पीते हुए रमता जोगी बहता पानी“ की उक्ति को आंशिक चरितार्थ करने हुए प्रगति पथ का यह अथक पथिक का दिनांक 10-2-2013 को ऐसे शुभ मुर्हूत मे रा.उ.मा.वि. सेती आगमन हुआ कि विद्यालय आपके सरकारी सफर का आखिरी मुकाम मुकर्रर रहा।
उच्च अधिकारियो के दिशा-निर्देशो की चाॅक पर जिम्मेदारियो की खुशबू से सुवासित कर्तव्य परायणता की सिद्ध माटी से सुनिर्मित कठोर मेहनत और पसीने के आँवां पर परिपक्व नैसर्गिक हास्य-शैली से परिर्पूएा यह अक्षय पावन घट शबनम सी आँखो सदृथ्श छलकता हुआ हीरे-मोती जैसे तोहिन कणो से युक्त आज एक प्राचीन मौन-साधना शिखर के स्वर्णिम कलश जैसा प्रतीत हो रहा है। सफरनामे मे इतिश्री लिख आखिरी पन्पे को पलटती हुई तनिक विश्राम हेतु कम्पायमान अंगुलियो की कलम अब कलमदान की ओर बढ़ रही है।
पुत्र योगेश सहित परिजनो के चिरप्रतीक्षारत सजल नयन, आँखे मे उमडते सावन-भादवो की घनघोर घटाअसे को बड़ी बेसब्री से संभालती हुई दहलीज पर खड़ी वृद्ध माँ ओर पुत्रियाँ आशा, निशा, रानी के अवस्द्व कण्ठो के सुरीले स्वागत-गीत, पौत्र-पौत्री दक्षराज उर्फ चिडि़याँ और कनिष्क के कंजकरो मे सुशोभित मौन विजय मालाण्ं, ढोल-नगाड़ो की हर्षवर्धक सांकेतिक ध्वनियाँ मुखारविन्द पर बहुरंगी गुलाल, करकमलो मे शोभायमान फलस्वरूप श्रीफल उक्त सभी धुप-छाया की भंाति सुख-दुःख सम्मिलित जीवन वन की समस्त संचित अनुभूतियाँ ही इस आंथिक शाब्दिक-अभिानन्दन को पूर्णता प्रदान करती हुई प्रतीत हो रही है।
सवा पैतीस वर्षो का सरकारी सफर पूर्ण कर सकल बंधनो से नैसर्गिक मुक्ति ले अस्ताचल की ओर बढ़ता हुआ क्षिप्रगामी ताम्रवर्णी तनिक क्लान्त सा यी अथक दिनकर सागर की लहरो का हमराज बनकर कारवां से दूर आज इस लवाजमे की तमाम नजरो से ओझल होने को आतुर लगता है। हीरक हार सी सुजज्जित तमस की श्यामल सेज पर तनिक विश्रामोपरान्त कल भौर की स्वर्णिम रश्मियाँ क्रमथः कर्म रेखाओ मे प्रारब्धानुसार परिवर्तन करती हुई नियमित स्वाध्याय, समाज सेवा, ईश्वरोपासना की ओर आनको सतत अग्रेषित करती रहेगी, विद्यालय परिवार की यही कोटि-कोटि शुभकामनाएँ है।